Friday, February 22, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -81

 जन्नत की हूरें 
अरबिस्तान (मिडिल ईस्ट) और तुर्किस्तान (मध्य एशिया) के बाशिंदे कुछ ज़्यादा ही  सेक्सी हुवा करते हैं. इस में अय्याशी कम, संतान उत्पत्ति का जज़्बा ज़्यादः कारगर होता है, क्योंकि बच्चे ही उनकी असली संपति होती है. 
उनकी औरतें बच्चा पैदा करने की मशीन होने में समाज का गौरव हुवा करती हैं. हमारे उप महाद्वीप ख़ास कर भारत के लोग सेक्स से ज़्यादः, 
आध्यात्मिक हुवा करते हैं. वह सेक्स से दूर भागते हैं. 
सेक्स को समाधि मानते हैं. 
वह इससे बचने के लिए योगी और सन्यासी बन जाते हैं, 
यहाँ तक कि साधु साध्वी और ब्रह्मचारी भी. 
बाल ब्रहमचर्य तो यहाँ महिमा मंडित हुवा करते हैं, 
गोया महात्मा ने कभी सेक्स-पाप नहीं किया.
बड़ा शांत स्वभाव होता है इनका. एक सामान्य मर्द याऔरत, 
इन्हें नपुंसक भी कह सकते है.  
अरबिस्तान और तुर्किस्तान के बाशिदों का मिज़ाज इसके उल्टा होता है. 
वहां ब्रहमचर्य का तसव्वुर भी नहीं होता. 
बहु विवाह और अनेक बच्चे वाले ही वहां का सम्मान है.
इस्लाम तो ब्रहमचर्य को हराम समझता है. 
न संभोग तो घर बार की ज़िम्मेदारी ही सही,
एक बेबसऔरत या बेवा का सहारा ही सही.
वहां मुस्लिम में माँ, बहिन, बेटियों के लिए कोई आश्रम नहीं होता.
न ही बनारस और विन्द्रा वन जैसे पंडों का बनाया गया क़ैद ख़ाना 
जिस में वह अय्याशी  भी करते हैं और देह व्योपार भी. 
हिन्दू भगवन से मोक्ष की प्रार्थना करता है.
इसके बर अक्स  
इस सेक्सी समाज के लिए अल्लाह कहता है 
तुम अपनी समाजी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभावगे 
तो तुमको मरने के बाद भी sex के लिए हूरों के झुण्ड देंगे. 
इनका अल्लाह झूटा हो या बे ईमान, 
औरतों की हिफ़ाज़त करने में सफल है. 
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Tuesday, February 19, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -80


 क़ानूने-फ़ितरत 
तब्दीलियाँ क़ानूने-फ़ितरत हैं जो वक़्त के हिसाब से ख़ुद बख़ुद आती रहती हैं. मुहम्मद ने अपना दीन थोपने के लिए ''तबदीली बराए तबदीली'' की है 
जो कठ मुल्लाई पर आधारित थी. 
ख़ास कर औरतें इस में हादसाती लुक़्मा हुईं. 
क़ब्ले-इस्लाम औरतों को यहाँ तक आज़ादी थी,
कि शादी के बाद भी कि अगर संतान से वंचित हैं तो  
वह समाज के लायक़ ओ फ़ायक़ फ़र्द से, 
अपने शौहर की रज़ामंदी के बाद, मासिक धर्म से फ़ारिग होकर, 
उसकी ''शर्म गाह'' की तलब कर सकती थीं 
और तब तक के लिए जब तक कि वह हामला न हो जाएँ .
 ये रस्म अरब में अलल एलान थी और क़ाबिले-सताइश थी, 
जैसा कि भारत में नियोग की प्रथा हुवा करती थी. 
मुहम्मद ने अनमोल कल्चर का गला गोंट दिया, 
मुसलमानों को सिर्फ़ यही याद रहने दिया गया कि 
सललललाहो अलैहेवसल्लम ने बेटियों को जिंदा दफ़नाने को रोका.
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Monday, February 18, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -79


 मुसलमान ख़ुद पर जदीद इलाज हराम करें 

मैं एक मुस्लिम का बेटा हूँ और स्वाभाविक रूप में एक मुस्लिम कालोनी में अपनी ज़िम्मेदारी उठाते हुए रहता हूँ. कालोनी में एक मस्जिद है, 
बनते वक़्त जिसका मैंने विरोध किया था कि कालोनी मंदिर व् मस्जिद से पाक हो. 
इसके लिए बिल्डर ने हमसे भी दस हज़ार रुपए का अतिया लेकर फ्लैट दिया था. 
मैंने उसे समझाया अतिया जबरन नहीं ली जाती, मगर वह राज़ी नहीं हुवा. 
मेरे अपने परिवार की मज़बूरी थी. 
मै नमाज़ रोज़ा नहीं करता न ही मुहम्मदी अल्लाह को तस्लीम करता हूँ. 
मस्जिद का मेंटेननेस देने से इंकार कर दिया जिसे कट्टर लोगों ने 
मुझ पर लागू कर दिया. 
बक़रीद की क़ुरबानी नहीं कराता, यह बात अलग है कि 
मैंने कालोनी के पार्क में दो संग मरमर की बेन्चें लगवा दीं. 
सुसाइटी की ज़िम्मेदारियाँ हमारी फ़ेमिली संभालती रही. 
अख़लाक़ी तौर पर हमारी फ़ेमली समाज के ज़िम्मेदार तरीन लोग हैं. 
पिछले दिनों मैंने इरादा किया कि मरने के बाद मैं अपना शरीर मेडिकल कालेज को दान कर दूं, मेरी फ़ेमिली इसके लिए ख़ुशी के साथ राज़ी हो गई, 
स्टाम्प पेपर भरा गया, पत्नि, बेटियों और बेटों ने रज़ामंदी के दस्तख़त किए, 
अब ज़रुरत हुई कि दो मुकामी लोग मुझे इंट्रोड्यूस करें, 
मैंने कालोनी के ही दो लोगों को पकड़ा जो मेरी तरह ही बूढ़े थे और जिनसे मेरी बनती भी थी. उन्होंने मेरे काम की तो सराहना की मगर इंट्रोडकशन देने से इंकार कर दिया कि यह बात इस्लाम के ख़िलाफ़ है. 
उनकी सोच यह कि इस काम से वह ग़ुनहगार होंगे और अल्लाह उनको पकड़ेगा.
ग़ुनाह का पसे मंज़र बतला दूं - - - 
कि मरने के बाद मुन्किर नक़ीर (यम राज) मुझे क़ब्र में नहीं पाएँगे तो हिसाब किताब किस से करेंगे. 
मैंने मेडिकल कालेज में अपने मुर्दे को दान करके अल्लाह और मौत के फ़रिश्ते को ग़ुमराह किया है. वह अल्लाह को जवाब क्या देगा और अल्लाह मुझ ग़ुनहगार को सज़ा कैसे दे पाएगा ?
सर्व शक्तिमान अल्लाह इतना कमज़ोर कि मुझे क़ब्र के बाहर तलाश नहीं कर सकता. सर्व शक्तिमान अल्लाह आख़िर मुझे ऐसी सोच ही क्यों दी जो वह अपने बन्दों से नहीं चाहता ??
सर्व शक्तिमान अल्लाह मेडिकल साइंस के अंदर इंसानों कि भलाई में लिए तह दर तह राज़ पोशीदा किए हुए है और दूसरी तरफ़ मज़हब हमें अपने नाकारा और मुर्दा जिस्म को डाक्टरों कि तालीम के लिए देने से मना कर रहा है ?
इन विरोधा भाषों के चौराहे पर मुसलमानो का कारवाँ सदियों से अटका हुवा है.  
मुसलमानो को राहे-रास्त तब ही मिल सकती है कि इनको तमाम नई ईजादों की बरकतों से महरूम कर दिया जाए.  
यही इनका इलाज है.  
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Sunday, February 17, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -78


 ख़ुदाओं की आमद 
तख़लीक़ ए कायनात का ज़िक्र जब आता है, 
जो सिर्फ़ साढ़े छः हज़ार साल पहले दुन्या के वजूद में आने की बात करता है. 
तो वाक़ेया नाटा ठिंगना और हास्य स्पद लगने लगता है. 
लाखो वर्ष पहले के इंसानी और हैवानी कंकाल मिलते है, 
साढ़े छह हज़ार पहले पैदा होने वाला पहला आदमी आदम कहाँ ठहरता है ? 
यह सूरतें कोरी कल्पनाएँ हैं जहाँ पर अक़्ल ए इंसानी जाकर अटक जाती है.  
इनको कंडम किए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती. 
 बचती है डरबन की थ्योरी जो बतलाती है कि इंसान का वजूद भी दूसरे जीवों की तरह पानी से ही हुवा, यह ख़याल अभी तक का सत्य मालूम पड़ता है, 
बाक़ी पूर्ण सत्य आने वाले भविष्य में छुपा हुवा है. 
आप अपने सर मुबारक को खुजलाएं कि 
आप अपने ज़ेहनों में इन अक़्ली गद्दा रूहानियत फ़रोशों 
की दूकानों से ख़रीदा हुवा सौदा सजाए हुए हैं ?
या बेदारी की तरफ़ आने के लिए तैयार हैं ?
इन के मुरत्तब किए हुए ख़ुदाओं में से जो किसी एक को नहीं मानता, 
यह उसे कहते हैं जानवर हैं.  
अब रावी आपको फिर डर्बिन की तरफ़ ले जाता है, इसकी तलाश में आपको आंशिक रूप में कुछ न कुछ सच्चाई नज़र आएगी. हो सकता है इंसान की शाख़ जीव जंतु से कुछ अलग हो मगर इंसान हैवानी हालात से दो चार होते हुए ही यहाँ तक पहुंचा है. पाषाण युग तक इंसान यक़ीनी तौर पर हैवानो का हम सफ़र रहा है, 
इसके बावजूद तब तक आदमी सिर्फ़ आदमी ही था. 
उस वक़्त तक इंसानी ज़ेहन में किसी अल्लाह का तसव्वर क्यों नहीं आया ? 
उस वक़्त किसी ख़ुदा के खौ़फ़ से नहीं बल्कि वजूद के  
बक़ा पर तवज्जो हुवा करती थी. 
यह ख़ुदा फ़रोश इंसान के लिए ख़ुदा को इतना ही फ़ितरी और लाज़िम मानते हैं तो उस वक़्त ख़ुद ख़ुदा ने अपनी ज़ात को क्यों नहीं मनवा लिया.  
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि अहद ए संग के क़ब्ल आदमी हैवानों का हम सफ़र था, इसके बाद इसको पहाड़ियों, खोहों, दरख़्तों और ज़मीनी पैदावारों ने कुछ राहत पहुंचाई. प्रकृतिक हलचल से भी कुछ नजात मिली, इंसान इंसानी क़बीलों में रहने लगा जिसकी वजह से इसमें कुछ हिम्मत और ताक़त आई. इसके बावजूद इसे जान तोड़ मेहनत और अपनी सुरक्षा से छुटकारा नहीं मिला. वह इतना थक कर चूर हो जाता कि उसे और कुछ सोचने का मौक़ा ही न मिलता. उस वक़्त तक किसी ख़ुदा का विचार इसके दिल में नहीं आया. 
वह रचना कालिक सीढ़ियाँ चढ़ता गया, चहार दीवारियाँ इंसान को सुरक्षित करती गईं, ज़मीनी फ़सलें तरतीब पाने लगीं, जंगली जानवर मवेशी बनकर क़ाबू में आने लगे. राहत की सासें जब उसे मयस्सर हुईं तो ज़ेहनों को कुछ सोचने का मौक़ा मिला. 
इंसानी क़बीलों के कुछ अय्यारों ने इस को भापा और ख़ुदाओं का रूहानी जाल बिछाना शुरू किया. इस कोशिश में वह बहुत कामयाब हुए. होशियार ओझों के यह फार्मूले ज़ेहनी ख़ूराक के साथ साथ मनोरंजन के साधन भी साबित हुए. 
इस तरह लोगों के मस्तिष्क में ख़ुदा का बनावटी वजूद दाखिल हुवा जोकि रस्म ओ रिवाज बनता हुवा वज्द और जुनून की कैफ़ियत अख़्तियार कर गया.  
दुन्या भर की ज़मीनों पर ख़ुदा अंकुरित हुवा, 
कहीं देव और देवियाँ उपजीं, कहीं पैग़मबर और अवतार हुए, तो कहीं निरंकार. 
इंसान ज़हीन होता गया, नफ़ा और नुक़सान विकसित हुए, 
फ़ायदे मंद चीज़ों को पूजने की तमीज़ आई, 
जिससे डरा उसे भी पूजना प्रारम्भ कर दिया. 
छोटे और बड़े ख़ुदा बनते गए या यूं कहे कि 
आने वाली महा शक्ति के कल पुर्ज़े ढलना शुरू हुए, 
जो बड़ी ताक़त बनी, 
उसका ख़ुदा तस्लीम होता गया. 
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Friday, February 15, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -76


 ज़िंदगी जीने की चीज़ है   

मुहम्मद की सोहबत में मुसलमान होकर रहने से बेहतर था कि 
इंसान आलम-ए-कुफ्र में रहता. 
मुहम्मद हर मुसलमान के पीछे पड़े रहते थे, 
न ख़ुद कभी इत्मीनान से बैठे और न अपनी उम्मत को चैन से बैठने दिया. 
इनके चमचे हर वक़्त इनके इशारे पर तलवार खींचे खड़े रहते थे 
" या रसूल्लिल्लाह ! हुक्म हो तो गर्दन उड़ा दूं"
आज भी मुसलमानों को अपनी आक़बत पर ख़ुद एतमादी नहीं है. 
वह हमेशा ख़ुद को अल्लाह का मुजरिम और ग़ुनाहगार ही माने रहता है. 
उसे अपने नेक आमाल पर कम और अल्लाह के करम पर ज्यादह भरोसा रहता है. 
मुहम्मद की दहकाई हुई क़यामत की आग ने मुसलमानो की शख़्सियत कुशी कर राखी है. 
क़ुदरत की बख़्शी  हुई तरंग को मुसलमानों से इस्लाम ने छीन लिया है.
सजदे में जाकर मेरी बातों पर ग़ौर करो, 
अगर तुम्हारी आँख खुले तो, 
सजदे से सर उठाकर अपनी नमाज़ की नियत को तोड़ दो 
और ज़िदगी की रानाइयों पर भी एक नज़र डालो. 
ज़िंदगी जीने की चीज़ है, 
इसे मुहम्मदी जंजीरों से आज़ाद करो.  
***

Thursday, February 14, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -75


अज़ीम इन्सान
समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुक़ाम को छूता है,
ईसा की तरह.
मौत के बाद वह महात्मा, ग़ुरू और पैग़मबर बन जाता है.
इसका मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको ग़ुणांक में रुतबा देने लगता है,
इसकी पूजा होने लगती है,
अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है.
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं,
फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं
और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट.
अज़ीम इन्सान की अज़मत का मुक़द्दस खज़ाना,
बिल आख़ीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है.
इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं,
जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िंदगी उसके पद चिन्हों पर चल कर ग़ुजारें.
हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं,
जब कि ज़रुरत है  उनको आला और जदीद तरीन अख़लाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ.
मज़हबी तालीम की अंधी अक़ीदत,
जिहालत का दायरा हैं.
इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
***

Tuesday, February 12, 2019

धर्म और मज़हब - - - सच्चाई के आईने में -77


थोथी बहसें

आजकल हमारे टेलीविज़न चैनलों पर हिन्दू मुस्लिम की
"जुबानी जंगी बहसों"
का सिलसिला बहुत पसंद किया जाता है.
दोनों वर्ग के कागज़ी पहलवान इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते है ,
ख़ास कर जब दोनों ओर के मुल्ला और पंडित इकठ्ठा होते है. 
यह दोनों नूरा कुश्ती किया करते है.
इसे जान साधारण आँख गड़ो कर देखते हैं और चैनलों की TRP
ऊंचाइयों पर चली जाती है.
दोनों तरफ़ के नेता और धर्म ग़ुरु कपट भरी बहसें करते हैं. 
इस्लाम की व्याख्या दोनों महानुभाव बहुत एहतियात के साथ करते हैं.
क़ुरआनी आयतें दोनों वर्गों के पास  प्रयक्ष रूप में होती हैं.
एक मिनट में वह क़ुरआनी आयतें पेश की जा सकती हैं
जिसमे मुहम्मदी अल्लाह खुलकर जिहाद का हुक्म देता है ,
बड़ी क्रूर तरीकों से मुसलमानो को जिहाद के लिए कहता है.
वह कहता है - - -
जिहाद तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और - - - 2=214
अल्लाह की राह में क़त्ताल  करो और  - - - 2=224-25
जिहाद में मरे हुए लोग मरे नहीं , वह ज़िंदा हैं और ख़ुश है - - - 3=70
 जिहादी सूरह - - - 4=75  , 77 ,
मैं  कुफ़्फ़ार के दिलों में रोब  डाल देता हूँ , सो तुम गर्दनों पर मारो, पूरा पूरा मारो  8=2
 जिहादी सूरह - - - 8 = 15-16-17
  जिहादी सूरह- - - 8=39-43 -64-67
घात लगा कर कफ़िरों के लिए बैठे रहो, उन्हें पकड़ो, बांधो और मारो सूरह तौबा 9=5
सूरह तौबा ऐसी सूरह है जिसे अल्लाह अपने नाम से शुरू नहीं करता बाक़ी सभी 113 सूरतें  बिस्मिल्लाह - - - से शुरू होती हैं. 
(इस सूरह में अल्लाह कफ़िरों के साथ अपने किए हुए समझौता को तोड़ता है ,  समजौता था
लकुम दीनकुम वले यदीन (यानि तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और हमारा दीन हमारे लिए )
जिस को मौलाना अज्ञान जनता के सामने रख कर इस्लाम की मिसाल देते हैं,
वह यह नहीं बतलाते कि यह मुआहिदा सिर्फ़ चार महीन चला जिसे अल्लाह जैसी ज़ात ने इसे तोड़ा और नए फ़रमान जारी किए. और तौबा करता है.
 जिहादी सूरह- - - 9=5-16-29-31-39  -41,45, 47,53 ,74,86
जिहादी सूरह- - - 48 =15,16 ,20,23
जिहादी सूरह- - - 61 =10,11 - - 9=5-16-29-31-39 
इन क़ुरानी पैग़ाम को हर मुल्ला और पंडित जानते हैं
मगर इसका एलान नहीं कर सकते.
मुल्ला इस लिए इस पैग़ाम का ख़ुलासा नहीं करता कि
वह रंगे हाथोँ पकड़ा जायगा और ला जवाब हो जाएगा.
पंडित इस वजह से इन क़ुरानी पैग़ाम को इस्लाम के मुंह पर नहीं मारता
कि उसके अपने धर्म में इससे भी बड़े शैतानी पैग़ाम छिपे हुए हैं
और वह नर मुंड पहने हुए काली माँ, कैलंडर की तरह मंज़र ए आम पर नुमायां है.
दोनों धर्म एक दूसरे के पूरक हैं.
उर्दू कहानी कार मीर अम्मन एक कहानी  के किरदारों में एक ऐसे मंतर का इस्तेमाल करते हैं जो कि मरे हुए मुर्दे की आत्मा को,
किसी ज़िदा को मार कर उसमें डाल सकते हैं.
वह एक देव को मार कर उसकी आत्मा को एक तोते को मार कर
उसके मुर्दा शरीर में डाल देते हैं.
इस तरह देव की हक़ीक़त तोते में महफूज़ रहती है.
इस पसे मंज़र में पंडित जी तोते की गर्दन इस लिए नहीं मरोर सकते
कि तोते में उनके देव की आत्मा है, उसे मारने से ख़ुद उनका देव मर जाएगा.
इस तरह से मुल्ला और पंडित धर्म और मज़हब के विषैले जीव को मरने नहीं देते.
यह उनकी रोज़ी रोटी है.
इन बातों का हल यही है कि 
इंसान धर्मों से मुक्ति पाए.
 ***